प्रकृति के ख़िलाफ़ युद्ध, यानी जनसँख्या नियंत्रण का विचार।

सईदुर रहमान चौधरी

अपने देश में मैंने एक बात यह देखी है कि यहां क़ानून बनाने की बात बहुत होती है। कोई रेप हो तो क़ानून बनाओ, कोई करप्शन हो तो क़ानून बनाओ, आबादी कम करना हो तो क़ानून बनाओ, कोई फ़साद कराना हो तो क़ानून बनाओ, फ़साद रोकना हो तो क़ानून बनाओ, सरकार को अपनी नाकामियाँ छुपानी हो तो क़ानून बनाओ। यानी हमारे हाँ हर समस्या का लोगों को एक ही समाधान समझ में आता है कि पुराने क़ानून पर एक और नया क़ानून लाद दो। और फिर उसी शीघ्रता से क़ानून की धज्जियाँ भी उड़ाई जाती हैं।

यानी जनता और सरकार सबको लगता है कि किसी मामले में पुराने क़ानून को तोड़ तोड़ कर उस की इतनी धज्जियाँ उड़ा दी गई हैं कि अब नया क़ानून बनना चाहिए। बिलकुल चमचमाता हुआ! पहली बात तो ये कि हमारे यहां समस्याएं सर उठाती रहती हैं और लोग मूकदर्शक बने रहते हैं। लेकिन अचानक उठते हैं और नया क़ानून मांगने लगते हैं। जैसे आजकल देश में सड़कों पर बे घर ग़रीबों की भीड़ देखकर घरों में रहने वाले जनसंख्या नियंत्रण पर क़ानून बनाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि उनकी तिजोरियों और बैंकों में जो कई नसलों के लिए माल बटोर कर रखा हुआ है वह इसी भीड़ की मेहनतों का नतीजा है, जिन्हें आप टीवी में देख देख कर घबरा रहे हैं और घिन खा रहे हैं। यह जो आपका आलीशान बंगला और ऊंची ऊंची बिल्डिंगें हैं वे सब उन्हीं के काँधों पर खड़ी हैं। उन्होंने अगर अपना कंधा नीचे से हटा लिया तो आप अपनी आन बान शान के साथ ज़मीन पर ढेर हो जाओगे। इसी प्रकार आपके घरों में जो एक से लेकर चार चार पाँच पाँच नौकर और नौकरानियां काम करती हैं नाँ वो इसी भीड़ से आती हैं। यही भीड़ है जो दो हज़ार की मेहनत करती है और आप उसे दो सौ में निप्टा कर अठारह सौ अपनी तिजोरी में डाल लेते हो। यही भीड़ है जो आपके नीच और घटिया कैरेक्टर को ख़ामोशी से सहन कर लेती है। आज आपकी आंखों में खटक रही है यह भीड़? खैर! वैसे भी कब आपने उनकी ख़िदमतों का शुक्रिया अदा किया है जो आज उनके साथ हमदर्दी करोगे। आपको तो वे इन्सान भी नहीं लगते। वे तो आपकी निगाह में भीड़ हैं। वह तो शुक्र है आपका बस नहीं चलता वर्ना आप तो तो उन्हें एक तरफ़ से कटवा के रुख दो। देखो नाँ सड़क पर चल रहे लोगों को एक गाड़ी ने रौंद कर मार डाला और आप को इतना भी दुख नहीं हुआ। आप तो इतमिनान से जनसंख्या नियंत्रण क़ानून पर अपनी आला राय रख रहे थे।

बेशक! जनसंख्या मुनासिब ही होनी चहिए। और रहती भी है। लेकिन आपके माता पिता ने यह बात नहीं समझी और आपको दुनिया में आने की इजाज़त दे दी। आपके नहीं तो आपके माता पिता के ही आठ दस भाई बहनों से कम नहीं होंगे। लेकिन आपने शिक्षा पाई और तौर-तरीक़े सीखे तब जा के आपके परिवार में थोड़ी सी बुद्धि आई और आपने ‘हम दो हमारे दो’ वाले फार्मूले पर अमल करते हुए दो बच्चों के बाद प्रकृति ने जिस दरवाज़े को खुला रखा था आपने उस दरवाज़े को कभी ना खुलने के लिए बंद करा दिया। और ख़ुदा ना ख़ास्ता आपके ‘बच्चे दो ही अच्छे’ किसी हादिसे या बीमारी में चल बसे तो आप हाथ मिलते रह जाओ। याद रखो अगर आप ख़ुदा या ईश्वर को नहीं मानते तो भी सुन लो यह प्रकृति और नेचर के ख़िलाफ़ जंग है। नेचर को मानने वालों का विश्वास है कि भगवान से बग़ावत की जाये तो वह प्रलय तक की मोहलत दे देता है। लेकिन नेचर से बग़ावत हो तो वह ज़्यादा मोहलत नहीं देती है। ना ईश्वर ही इस अप्राकृतिक क़ानून को प्रोत्साहित करता है ना नेचर ही इस के हक़ में है।

हम यह क्यों नहीं देखते कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या रखकर भी ग़रीबी पर कंट्रोल कर के एक खुशहाल सोसाइटी बना सकता है तो बाक़ी दुनिया क्यों नहीं बना सकती है। जबकि आबादी पर कंट्रोल से और भी अन्य जटिल और अडिग समस्याएं जन्म लेने लगती हैं। इस अप्राकृतिक जनसंख्या नियंत्रण कानून से देश में नाकारा बूढ़ों और बच्चों की संख्या हमेशा मेहनत करने की ताक़त रखने वाले युवाओं के मुकाबले में बढ़ जाती है। ऐसे में कोरोना(Corona) जैसे वाएरस देश में बड़ी तबाही मचाते हैं। पश्चिमी देशों में तमाम चिकित्सक सुविधाओं के बावजूद कोरोना(Corona) से बड़े पैमाने पर मृत्यु का एक कारण यह भी हो सकता है। इसी प्रकार हम जानते हैं कि विश्व पर हमेशा युद्ध का साया मंडलाता रहता है। जंगों में रणनीति के साथ युवाओं की संख्या की भी ज़रूरत होती है। इसी लिए दूसरी विश्व युद्ध में ज़्यादा बच्चा जनने वाली माओं को सम्मान की निगाह से देखा जाता था। हम यह क्यों नहीं देखते कि बच्चा एक मुँह के इलावा दो हाथ, दो पैर और एक दिमाग़ भी लेकर पैदा होता है। हम यह क्यों नहीं देखते कि विश्व में जनसंख्या बढ़ी है तो धरती ने पैदावार कितनी गुना बढ़ा दी है। और वास्तव में देखा जाये तो सुविधाओं और पैदावार के बढ़ने से ही विश्व की जनसंख्या में बढ़ोतरी हुई है। वही खेत जो एक साल में दो कोईंटल अनाज भी नहीं उगा पाते थे अब वही खेत दस गुना ज़्यादा अनाज देने लगे हैं। पहले मुश्किल से पच्चास प्रतिशत खेतों में फ़सल उगाई जाती थी अब खेती योग्य ज़मीन के एक एक कोने में फ़सल उगाई जाती है। एक बीता ज़मीन भी ख़ाली नहीं बचती जिसमें खेती ना हो। यह पैदावार बढ़ी है तभी जनसंख्या बढ़ी है। इसलिए यह जानना चाहीए कि आबादी का बढ़ना भी एक प्राकृतिक प्रतिक्रया है। धरती के विभिन्न क्षेत्रों में आबादी की दर विभिन्न अंदाज़ में बढ़ती है। इस में हस्तक्षेप करना एक अप्राकृतिक प्रतिक्रया है।

लेकिन हम देश में गरीबी का मूल्य कारण तलाश नहीं करते बल्कि ग़रीबों ही को समस्या मान लेते हैं। कितने सादा हैं हम लोग?! कितनी भोली-भाली क़ातिल है यह शिक्षित दुनिया! हम यह नहीं देखते कि वास्तविक समस्या आबादी नहीं है ब्लकि संसाधनों का असमान वितरण है। इस ना इंसाफ़ी के चलते चंद लोगों ने देश के 90 प्रतिशत से ज़्यादा संसाधन और दौलत पर क़बज़ा जमा रखा है। इसी ना बराबरी के कारण ही देश के मेहनत-कश लोग इन्सान नहीं भीड़ नज़र आते हैं। इतना याद रखिए एक मेहनत-कश व्यक्ति धरती पर कभी बोझ नहीं हो सकता है। और हिन्दोस्तान का एक एक आम नागरिक कड़ी मेहनत करता है। फिर भी उसे बोझ माना जा रहा है।

मेरी अपील और राय यही है कि यह जनसंख्या नियंत्रण का अप्राकृतिक विचार दिल से से निकाल देना चाहिए। नहीं तो याद रखना प्राकृत का इंतिक़ाम बहुत कठोर होता है। असल प्रश्न संसाधनों के आसमान वितरण पर उठाया जाना चाहिए जो सारी समस्याओं की जड़ है। लेकिन यह प्रश्न पूंजीपतियों के एहसान तले दबे देशों में नहीं उठाया जा सकता।

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Ma Sha Allah jabrdast 👌 bahut achi koshish hai very good 👍