क्या क़ुरबानी करना जानवरों पर अत्याचार है?

फोवाद अह़मद

स्लाम वह धर्म है जिसमें दया को सबसे अधिक महत्व प्राप्त है। मानव तो मानव जानवरों पर भी अत्याचार करने को बहुत बड़ा अपराध बताया गया है। यह वह धर्म है जिसमें हर प्रकार के लाभदायक जीव जंतुओं और जानवरों को पालने, उनकी रक्षा करने और उन्हें अपने काम में लाने की अनुमति दी गई है। कुछ जानवर जैसे बकरा- बकरी,भेड़ एवं ऊट आदि को बक़र- ईद के अवसर पर अल्लाह के रास्ते में उसकी खुशी प्राप्त करने हेतु कु़रबान करने को इबादत कहा गया है। इस लिए हर साल कुछ दिनों मुसलमान अल्लाह के लिए जानवरों की क़ुरबानी देते हैं और त्योहार की ख़ुशी मनाते हैं। 

हमारी यह प्रसन्नता पशुओं के माँस को खाने हेतु नहीं बल्कि केवल अपने अल्लाह के अादेश के पालन करने के कारण होती है जिसने पृथ्वी, आकाश तथा सूर्य एवं चन्द्रमा को पैदा किया। अल्लाह का कथन है:

لن ینال الله لحومھا ولا دماؤھا ولٰکن ینالہ التقویٰ منکم۔۔۔(سورۃ الأنبیاء : 37)

अर्थात्: अल्लाह के पास क़ुरबानी के पशुओं का मांस तथा रक्त कदापि नहीं पहुंचता। बल्कि केवल तुम्हारे (हृदय का) तक़वा (डर) पहुंचता है।

यह कुरबानी हमें यह संदेश देती है कि यदि हम किसी मनुष्य को भूखा देखें तो उसकी भूक और प्यास को मिटाने के लिए हमें अपनी भूक की क़ुरबानी देनी पड़े तो अवश्य दें। यदि हमें अपने अधिकार के लिए, चाहे वह देश से सम्बंधित हो अथवा किसी और से हो। हमें अपनी भी जान देनी पड़े, तो हम तैयार हो जायें।

परन्तु हमारे बहुत से हिन्दू भाई इस्लाम और मुसलमानों पर क्रूरता का आरोप लगाते हैं। और क़ुरबानी को जानवरों पर एक प्रकार का ज़ुल्म बताते हैं। जबकि हर सही बुद्धि रखने वाला यह सोच सकता है कि जानवरों को पैदा करने वाले ने उन्हें हमारे लाभ के लिए बनाया है। अल्लाह ने क़ुरआन में कहा:

الله الذی جعل لکم الأنعام لترکبوا منھا ومنھا تأکلون (سورۃ المؤمن آیت: 79)

अर्थात् :अल्लाह ने तुम्हारे लिए पशुओं का उत्पादन किया ताकि तुम उनकी सवारी करो अौर उन्हें खाअो।

दूसरी जगह अल्लाह का कथन है:

والأنعام خلقھا لکم فیھا دفء و منافع ومنھا تأکلون ( سورۃ النحل : 5 )

अनुवाद – अल्लाह ने पशुओं का उत्पादन किया जिसमें तुम्हारे लिए पहनने के वस्त्र तथा बहुत लाभ हैं। और तुम उन्हें खा भी सकते हो।

आज संसार में एक बड़ी मात्रा में ऐसे भी लोग हैं जो जीव जंतुओं एवं जानवरों को खाते हैं किन्तु उनमें शुद्ध अथवा अशुद्ध का अन्तर नहीं समझते। यदि शुद्ध पशु खाते भी हैं तो उनके काटने का तरीका़ पशुओं को अधिक कष्ट पहुंचाने का कारण बनता है। तथा कुछ लोग ह़लाल परन्तु अपनी मौत मरे हुए पशुओं का मांस खाते हैं। जो उनके शरीर के लिये बहुत हानिकारक होता है।

परन्तु इस्लाम की इन पशुओं के काटने की बताई गई विधि में उनके के लिए भी आराम होता है तथा खाने वाले को भी कोई हानि नहीं पहुंचती। और इस्लामी ज़बह का तरीक़ा जानवर के लिए सबसे सरल मृत्यु है। जिसमें वह थोड़ी देर में प्राण त्याग देता है अौर घुट घुट कर अथवा किसी रोग से चूर होकर नहीं मरता।

यदि हम साइंस की आंख से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि जानवरों को ज़बह करना (इस्लाम में बताई गयी विधि के द्वारा काटने से) उन पर कोई अत्याचार एवं ज़ुल्म नहीं होता है।

क्योंकि गरदन की नसों को तेज़ काटने के कारण जानवर के भेजे की उस जगह पर रक्त का प्रवाह रुक जाता है जहाँ दुख का अनुभव होता है। और काटे जाने वाले पशु को कष्ट नहीं पहुँचता।
और पशु प्राण त्यागने के समय जो तड़पता है अथवा पैरों को हिलाता और भूमि पर जल्दी जल्दी मारते हुए देखा जाता है तो यह दुख के कारण नहीं करता बल्कि यह रक्त की कमी के कारण मांसपेशियों के फ़ैलने एवं सिकुड़ने से होता है। तथा रक्त विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं एवं रोगाणुओं समेत बाहर निकल जाता है। अत: मांस शरीर को कोई हानि नहीं पहुंचाता। ( इस्लाम पर चालीस एतेराज़ात के अक़ली व नक़ली जवाब पेज:118)

इसी प्रकार जो लोग यह कहते हैं कि हर साल इतनी अधिक मात्रा में जानवरों की क़ुरबानी उनके जाति संहार का बहुत बड़ा कारण बनता है। उन्हें यह समझना चाहिए कि इन जानवरों को पैदा करने वाला भगवान ही उन्हें मृत्यु भी देता है। जब उसने हमें क़ुरबानी का आदेश दिया तो ऐसा कभी नहीं हो सकता कि वह हमें इन पशुओं से वंचित कर दे अत: हम देखते हैं कि हर साल इतनी अधिक मात्रा में क़ुरबानी की जाने के बावजूद भी इन जानवरों एवं पशुओं की संख्या में कोई कमी नहीं होती है।

अन्त में अल्लाह से प्रार्थना है कि वह हमें सही समझ की शक्ति प्रदान करे। अामीन

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